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Saturday, 15 September 2018

कुतुबुदीन की मोत का राज

कुतुबुदीन की मोत  के बारे में बताया जाता है की उसकी मोत पोलो खलते समय घोड़े से गिरने से हुई थी | लेकिन गोर करने वाली बात यह है की ये अफगान/तुर्की लोग पोलो खेलते ही नही थे |

 वे बुजकसी खेलते थे जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है |,जो उस बकरे को लेकर मंजिल तक पहुँचता  है वह जीत जाता है | फारस के प्राचीन लेखो के अनुसार कुतुबुदीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेक इलाको में अपना कहर बरसाया था |
 उसका सबसे कड़ा विरोध उदयेपुर के राजा ने किया ,लेकिन कुतुबुदीन उन्हें हराने में सफल रहा | उसने धोखे  से राजकुंवर कर्णसिंह और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड़ लिया | एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशीश की लेकिन पकडे गये | इस से क्रोधित होकर कुतुबुदीन ने उनका सर काटने का हुकुम दिया | 


दरिंदगी दिखाने के लिए कुतुबुदीन ने कहा की बुजकशी खेला जायेगा,लेकिन इसमें बकरे की जगहे राजकुंवर का सर होगा | कुतुबुदीन ने इस कम के लिए घोडा भी राजकुंवर का "शुभ्रक " चुना | कुतुबुदीन शुभ्रक पर सवार होकर आपनी टोली के साथ जन्नत बाग पहुंचा | राजकुंवर को भी जंजीरों में बांध के वहां लाया गया | कुंवर का सर काटने के लिए  उन्हें जंजीरों से खोला गया ,शुभ्रक  उछाला और कुतुबुदीन को अपनी पीठ से निचे गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने पेरो से कई वॉर किये ,जिससे कुतुबुदीन वही मर गया | इससे पहले सिपाही कुछ समज पते  राजकुंवर शुभ्रक पर सवार होकर वहां से निकल गये | शुभ्रक लगातार दोड कर उन्हें उदयपुर महल पहुंचा दिया|

कुतुबुदीन की मोत और शुभ्रक की स्वामी भक्ति की इस घटना के बारे में हमें नही पढाया जाता |लेकिन इस घटना के बारे में फारस के प्राचीन लेखकों ने बहुत लिखा है
"धन्य है भारत की भूमि ,जहाँ इन्सान तो क्या जानवर भी अपने स्वामी भक्ति के लिए प्राण दाव पर लगा देते है "|

Friday, 14 September 2018

प्रारब्ध

एक व्यक्ति हमेशा ईश्वर का नाम का जाप किया करता था |  धीरे-धीरे वह काफी बुजुर्ग हो गया इसलिए एक कमरे में ही पड़ा रहता था | जब भी उसे शोच - स्नान आदि के लिए जाना होता था  तो वह अपने बेटों को आवाज़ लगाता था और बेटे ले जाते थे |  धीरे-धीरे जब कुछ दिन बाद बेटे कई बार आवाज लगाने के बाद भी कभी-कभी आते हैं और देर रात को नहीं भी आते थे |  इस दौरान वे कभी-कभी गंदे बिस्तर पर ही रात बिता दिया करता था |  अब और ज्यादा बुढ़ापा होने के कारण उन्हें कम दिखाई देने लगा |  एक रात निवृत होने के लिए जैसे ही उन्होंने आवाज़ लगाई तुरंत एक लड़का आता है और बड़े ही कोमल स्पर्श के साथ उनको  निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लिटा जाता है | अभी यह  रोज का नियम हो गया | एक रात उसे  शक हो जाता है कि पहले तो बेटों को रात में कई बार आवाज लगाने पर भी वह नहीं आते थे | लेकिन यह तो आवाज़ लगाते ही दूसरे ही क्षण आ जाता है | और बड़ी कोमल स्पर्श से निवृत करवा देता है |  एक रात में बुजुर्ग उस लड़के का हाथ पकड़ लेता है और पूछता है कि सच बता तू कौन है मेरे बेटे तो ऐसे नहीं हैं |  तभी अंधेरे कमरे में एक अलौकिक उजाला हुआ और उस लड़के रूपी ईश्वर ने अपना वास्तविक रूप दिखाया | वह व्यक्ति रोते हुए कहता है हे प्रभु आप स्वयं मेरे  निवृत्ति के कार्य कर रहे हैं, "यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुझे मुक्ति दे दो ना " प्रभु कहते हैं कि जो आप भुगत रहे हैं वह आपके प्रारब्ध  है | आप मेरे सच्चे साधक हैं हर समय मेरा जॉब करते हैं इसलिए मैं आपके प्रारब्ध  भी  आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूं | व्यक्ति कहता है कि क्या मेरे  प्रारब्ध आपकी  कृपा से भी बड़े हैं | क्या आपकी कृपा मेरे  प्रारब्ध नहीं काट सकती |  प्रभु कहते हैं कि मेरी कृपा सर्वोपरि है यह अवश्य आपके  प्रारब्ध  काट सकती है लेकिन अगले जन्म में आपको यह  प्रारब्ध  भुगतने फिर से आना होगा | यही कर्म नियम है इसलिए आप के प्रारब्ध  में स्वयं अपने हाथों से कटवा कर इस जन्म मरण के चक्र से आप को मुक्त करवाना चाहता हूं|  ईश्वर कहते हैं "प्रारब्ध तीन तरह के होते हैं मंद, तीव्र  और तीव्रतम " | मंद प्रारब्ध मेरा नाम जपने से कट जाते हैं|  तीव्र प्रारब्ध किसी सच्चे संत का सत्संग सुनने से नाम जपने से कट जाते हैं | पर तीव्रतम  प्रारब्ध भुगतने पड़ते हैं लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैं उनके प्रारब्ध में स्वयं साथ रहकर कटवाता हूं | और तीव्रता का एहसास नहीं होने देता | प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर|
 तुलसी चिंता क्यों करे बदली श्री रघुवीर || 

भारत का भूगोल ज्ञान

  भारत का भूगोल ज्ञान -

हमारे वेद ,पुराणों में भूगोल की वो जानकारी है जो आज के आधुनिक युग को भी पीछे छोडती है|  लेकिन  हम लोगो के उपर पश्चिम  का भूत सवार है ,हम मानते है की जो भी ज्ञान आज दुनिया में है वो पश्चिम के देशों से आया है  | लेकिन यह सही नही है  आज मै आपके सामने  एसे उद्धरण पेश करूंगा जो आपकी सोच को बिलकुल बदल कर रख देंगे |

 1. अफ्रीका महाद्वीप को पुराणों में अंधकार द्वीप कहते है | जब इंग्लेंड में मिश्र की नील नदी की खोज शुरू हुई तो उस मिशन की कमांड जान स्पीकी को दी गयी | 1859 में उसने नील नदी के उद्गम की खोज की यात्रा आरंभ कर दी और 1862 में वह मील नदी के उद्गम स्थल विक्टोरिया झील पहुँच गया |  फिर 1863 में उसने एक बुक लिखी जिसमे उसने उस यात्रा के बारे में सब लिखा था और उस बुक का नाम था "journal of the discovery of the sources of the nile " इस बुक में वह लिखता है की "इस खोज के समय मेरे मित्र कर्नल रूबी ने मुझे विल्फ्रेड द्वरा बनाये हिन्दू पुराणों अनुसार नील नदी के नक़्शे तथा एक ५० पाज का निबंध दिया | जिसकी मदद से  ही मै अपने गंतव्य तक पहुँच पाया " 
इस बुक के पहले पन्ने पे वह नक्शा छापा है जिसपे लिखा है "काली अथवा महा कृष्णा  नदी का मार्ग हिन्दू पुराणों के अनुसार ".

2. पुराणों में अफ्रीका महाद्वीप को शंख द्वीप कहते है | आज हम अगर विश्व  के नक़्शे को देखेगें तो हमें पता चल जायेगा की अफ्रीका की आक्रति शंख के सामान है | वहां के भोगोलिक नाम आज भी पुराणों से मिलते है माली सुमाली  ये अफ्रीका खंड के 2 प्रदेशो के नाम है और ये नाम रावन के सम्बन्धियों के है जिनका जिक्र रामायण में आता है |रामायण में वर्णित सुन्द -उपसुन्द नामक असुरो के नाम से यहाँ जनजातियाँ भी है | 

3.बाल्मीकि रामायण में भूगोल के संबंध में पूर्व ,पश्चिम ,उतर, दक्षिण दिशाओं के बारे में जिक्र आता है जिसमे सुग्रीव वनरो को सभी दिशाओं में भजते हुए बोलते है की "मै आकाश मार्ग से जब जा  रहा था तो प्रथ्वी घुमती हुई दिखाई दी"| विज्ञानं ने यह अभी कुछ 100 सालो पहले यह बताया है लेकिन सुग्रीव ने तो यह कितने वर्षों पहले बता दिया था | इसके आगे सुग्रीव वनरो को बताते है की उन्हें किस दिशा में क्या क्या मिलेगा | उन्होंने उतर दिशा में जाने वाले दल को कहा की हिमालय को पार करने के बाद एक बर्फीला इलाका आएगा उसमे बहुत आगे जाने के बाद एक सिसिर परदेश (सीबेरिया) आएगा जो ध्रुव का अंतिम कोना होगा | इसके आगे मत जाना क्यूंकि इसके आगे कोई इन्सान नही रहता | सुग्रीव ने भूगोल के बारे में जो वर्णन किया है ,यदि आज के युग में उसका विश्लेषण किया जाये तो एक आश्चर्य  लगेगा | 

4. पुराणों में पर्थ्वी का एक नाम अग्निगर्भा  आता है | आज विज्ञानं का छात्र तो जनता है की धरती बहार से सीतल लेकिन अंदर से जलता हुआ लावा है | लेकिन पुराणो में इसका वर्णन बहुत प्राचीन समय से है | 

Sunday, 9 September 2018

परीक्षित को ऋषि पुत्र का श्राप

एक समय की बात है एक जंगल में श्रृंगी ऋषि  तपस्या कर रहे  थे|  उसी जंगल में राजा परीक्षित शिकार खेलने आए|  गर्मी के कारण उन्हें बहुत प्यास लगी और वे  जल की तलाश में निकल पड़े | उन्होंने निकट ही एक आश्रम देखा और वहां पर चले गए | वहां पर उन्होंने श्रृंगी ऋषि को तपस्या करते हुए देखा और उन्हें जल लेने के लिए  पुकारा| तपस्या में लीन होने के कारण उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया |  राजा भी  अपने घमंड में थे |  बार-बार पुकारने पर भी जब ऋषि ने अपनी आंखें नहीं खुली तो राजा को गुस्सा आ गया और उहोने धनुष की नोक से  मरे हुए सांप को उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और पास रखे घड़े से खुद ही  पानी पीकर वहां से चले गए |  राजा के जाने के पश्चात ऋषि श्रृंगी के  पुत्र को उसके मित्रों ने बताया कि राजा परीक्षित ने  यहां आकर उनके पिता का अपमान किया और उनके गले में मृत सांप डाल दिया |  यह सुनकर ऋषि पुत्र को बहुत अधिक गुस्सा आया और राजा को श्राप दिया कि आज से ठीक 7 दिन बाद उन्हें नागराज तक्षक डस लेगा |  ऋषि पुत्र के इस श्राप का पता चलते ही राजा परीक्षित भयभीत हो उठे और उन्होंने श्राप  से बचने के लिए हर संभव प्रयास किया |  किंतु होनी को कौन टाल सकता था |  समय निकट आते ही तक्षक राजा परीक्षित को डसने के लिए निकल पड़ा रास्ते में उनकी भेंट एक कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण से हुई  |  ब्राह्मण ने पूछा कि तुम कहां जा रहे हो तो तक्षक ने बताया कि वह श्राप  के अनुसार राजा परीक्षित को दंशने  जा रहा है|  तब  ब्राह्मण  ने कहा कि वह राजा परीक्षित को बचाने के लिए जा रहा है|  यह सुनकर नागराज तक्षक ने  पास में ही एक पेड़ के ऊपर अपना विष फेंक  दिया जिससे वह पेड़ जलकर सूख गया | तभी उस ब्राह्मण ने हाथ में जल लेकर कुछ मंत्र पढ़कर उस पेड़ पर छिड़क दिया जिससे वह पेड़ वापिस हरा हो गया   इस पर तक्षक को बहुत हैरानी हुई और उसने ब्राह्मण  से क्षमा मांगी और उन्हें यह समझा कर कि श्राप को टाला नहीं जा सकता है  और उन्हें वापस भेज दिया  | तक्षक भी   अपने मार्ग पर आगे बढ़ गया और ठीक सातवें दिन उसने राजा परीक्षित को डस लिया जिससे राजा परीक्षित की मृत्यु हो गयी | 

Saturday, 8 September 2018

दृढ़ इरादों से मिलती है सफलता

 कोई भी कार्य कितना ही जटिल क्यों ना हो यदि मजबूत इच्छाशक्ति हो तो अंततोगत्वा उसे पूरा करने में सफलता हासिल होती ही है |  यह कहानी है लंदन के बालवर्ध  उपनगर की जो अपराधियों की बस्ती के रूप में जाना जाता था |  यहां के अधिकांश निवासी निर्धन और अशिक्षित थे|  इसी वजह से अपराध का ग्राफ काफी ऊपर था | बस्ती के इस प्रदूषित माहौल ने बच्चों को भी अपनी चपेट में ले लिया था  | छोटे-छोटे बच्चे भी गलत कार्यों में संलग्न थे |  ऐसे समय में यहां 1 दिन एक युवक कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से अपनी शिक्षा पूर्ण करके आया  | उसने पहले बस्ती के लोगों से परिचय बढ़ाया और धीरे-धीरे उनके साथ घुल मिल गया |  जब सभी उसे पसंद करने लगे तब उसने अपने छोटे कमरे में पहले बस्ती के बच्चों को पढ़ाना आरंभ किया |  वह उन्हें दैनिक जीवन की छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातें बताता और उदाहरणों से अपनी बातों को स्पष्ट करता  | फिर धीरे-धीरे वह उन्हें उत्तम संस्कार देने लगा बस्ती के लोगों को महसूस हुआ कि यह व्यक्ति उनके बच्चों को सही शिक्षा दे रहा है ,क्योंकि उन्होंने बच्चों में काफी सुधार महसूस किया  |  इससे  बस्ती के लोगों में युवक के प्रति विश्वास बढ़ा |  युवक ने अपने काम को आगे बढ़ाते हुए लोगों से कहा हर रविवार आप सभी  कक्षा में आया करे |  वे लोग तैयार हो गए युवक ने उन्हें तैयार किया कि वे सप्ताह में एक दिन कोई अपराध न करें  | युवक की अच्छाई से अभिभूत लोगों ने इसे भी स्वीकार कर लिया फिर लोगों ने स्वयं ही तय किया कि वे 4 दिन तक कोई अपराध नहीं करेंगे |  धीरे-धीरे वॉलवर्ध  का पूर्णता कार्यकलाप हो गया |  और वह सभ्य समाज का एक अंग बन गया |  वह समाज सुधारक युवक बाद में भारत आया जिसे सीएफ एडरयूज  (दीनबंधु) के नाम से जाना जाता है |  यह सत्य कथा संकेत करती है कि यदि संकल्प दृढ़ हो तो मार्ग में आने वाली बाधाएं हट जाती हैं  | और सफलता के द्वार खुलते जाते हैं कार्य कितना ही जटिल क्यों ना हो यदि मजबूत इच्छाशक्ति हो तो अंततोगत्वा सफलता प्राप्त होती ही है | 

विश्व विजय दिवस THE STORY OF CHICAGO Parliament of the World's Religions

विश्व  विजय दिवस  :-( विश्व  विजय दिवस) इसके बारे में बहुत कम लोग ही जानते है |  11सितम्बर 1893 में एक भारतीय संत ने अपने विचारो और अपने ओजस्वी भाषण  से समस्त विशव  के लोगो को  अपनी हिन्दू संस्कृती का हृदय से समर्थक बना दिया था | जी हाँ  मै बात कर  रहा हूँ  स्वामी विवेकानंद जी की  जिन्होंने 125 वर्ष  पहले  1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में हिंदुत्व का डंका बजा दिया था | जिनहोने अपने भाषण का आरम्भ मेरे अमेरिकी भाईयों और बहनों  से करके सभी लोगों का ह्रदय छू लिया | वहाँ उपस्थित सभी व्यक्ति ये शब्द सुनकर अपनी जगहे से खड़े होकर तालियों की बौछार करने लगे  थे | 

 विवेकानंद जी के भाषण के कुछ अंश 
          11सितम्बर 1893
अमेरिका की बहनों और भाईयों  यह आपके दिल को गर्म और सौहार्दपूर्ण स्वागत के जवाब में बढ़ने के लिए अनजान है जो आपने हमें दिया है। मैं दुनिया में भिक्षुओं के सबसे प्राचीन आदेश के नाम पर धन्यवाद; मैं धर्मों की मां के नाम पर आपका धन्यवाद करता हूं; और मैं आपको सभी वर्गों और संप्रदायों के लाखों और लाखों हिंदू लोगों के नाम पर धन्यवाद देता हूं। मेरा मंच, इस मंच पर कुछ वक्ताओं के लिए भी, जो ओरिएंट के प्रतिनिधियों का जिक्र करते हैं, ने आपको बताया है कि दूर-दराज के देशों के ये लोग अलग-अलग देशों को झुकाव के विचार से सम्मानित करने का सम्मान कर सकते हैं। मुझे एक ऐसे धर्म से संबंधित गर्व है जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों को सिखाया है। हम न केवल सार्वभौमिक गति में विश्वास करते हैं, बल्कि हम सभी धर्मों को सत्य मानते हैं। मुझे ऐसे राष्ट्र से संबंधित गर्व है जिसने सताए गए और सभी धर्मों और पृथ्वी के सभी राष्ट्रों के शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बताने पर गर्व है कि हमने अपने बस्तियों को इस्राएलियों के सबसे शुद्ध अवशेषों में इकट्ठा किया है, जो दक्षिणी भारत आए थे और उसी वर्ष हमारे साथ शरण ली थी जिसमें उनके पवित्र मंदिर रोमन अत्याचार से टुकड़े हो गए थे। मुझे उस धर्म से संबंधित गर्व है जिसने आश्रय दिया है और अभी भी ग्रैंड जोरोस्ट्रियन राष्ट्र के अवशेष को बढ़ावा दे रहा है। हे भाइयो, मैं आपको बताऊंगा कि एक भजन से कुछ पंक्तियां जो मुझे याद है कि मेरे शुरुआती बचपन से दोहराया गया है, जो हर दिन लाखों मनुष्यों द्वारा दोहराया जाता है: जो दक्षिणी भारत आए और उसी वर्ष हमारे साथ शरण ली जिसमें उनके पवित्र मंदिर रोमन अत्याचार से टुकड़े हो गए थे। मुझे उस धर्म से संबंधित गर्व है जिसने आश्रय दिया है और अभी भी ग्रैंड जोरोस्ट्रियन राष्ट्र के अवशेष को बढ़ावा दे रहा है। हे भाइयो, मैं आपको बताऊंगा कि एक भजन से कुछ पंक्तियां जो मुझे याद है कि मेरे शुरुआती बचपन से दोहराया गया है, जो हर दिन लाखों मनुष्यों द्वारा दोहराया जाता है: जो दक्षिणी भारत आए और उसी वर्ष हमारे साथ शरण ली जिसमें उनके पवित्र मंदिर रोमन अत्याचार से टुकड़े हो गए थे। मुझे उस धर्म से संबंधित गर्व है जिसने आश्रय दिया है और अभी भी ग्रैंड जोरोस्ट्रियन राष्ट्र के अवशेष को बढ़ावा दे रहा है। हे भाइयो, मैं आपको बताऊंगा कि एक भजन से कुछ पंक्तियां जो मुझे याद है कि मेरे शुरुआती बचपन से दोहराया गया है, जो हर दिन लाखों मनुष्यों द्वारा दोहराया जाता है:

भामा शाह का त्याग

यह बात उस समय  की है जब चित्तोड़ पर अकबर  ने कब्ज़ा कर लिया था | महाराणा प्रताप अपने परिवार और कुछ राजपूतों  के साथ  अरावली के वनो में भटकने को मजबूर थे | चित्तौड़ के महाराणा और सोने के पलंग पर सोने वाले उनके बच्चे भूखे -प्यासे पर्वत की गुफाओं में घास- पत्ते खाते और पत्थर की चट्टानों पर सो जाते थे लेकिन महाराणा प्रताप को इन सब कष्टों की चिंता नहीं थी|  उन्हें एक धुन  थी कि शत्रु से चित्तौड़ की पवित्र भूमि का उद्धार कैसे किया जाए|  किसी के पास काम करने का साधन न  हो तो उनका अकेला उत्साह क्या काम आएगा |  महाराणा प्रताप और उनके सैनिक भी कुछ दिन भूखे प्यासे रह सकते थे किंतु भूखे रहकर युद्ध कैसे चलाया जा सकता है? घोड़ों के लिए ?हथियारों के लिए ?सेना को भोजन देने के लिए तो धन चाहिए ही |  महाराणा के पास फूटी कौड़ी तक नहीं बची थी | उसके राजपूत और भील सैनिक अपने देश के लिए मर मिटने को तैयार थे ,उन देशभक्त वीरों को वेतन नहीं लेना था | किंतु बिना धन के घोड़े कहां से आएंगे? हथियार कैसे बनेंगे? मनुष्य और घोड़ों  को भोजन कैसे दिया जाएगा इतना भी प्रबंध न हो तो बड़ी निराशा हो रही थी|  अंत में एक दिन माराणा ने अपने सरदारों से विदा ली भिलों को समझा कर लौटा दिया प्राणों से प्यारी जन्मभूमि को छोड़कर महाराणा राजस्थान से कहीं बाहर जाने को तैयार हुए जब महाराणा अपने सरदारों को रोता छोड़कर महारानी और बच्चों के साथ में वन के मार्ग से जा रहे थे|



तभी महाराणा के मंत्री भामाशाह घोड़ा दौड़ आते आए और महाराणा के पैरों पर गिर कर फूट-फूट कर रोने लगे आप हम लोगों को अनाथ करके कहां जा रहे हैं|  महाराणा प्रताप ने भामाशाह को उठाकर हृदय से लगाया और आंसू बहाते हुए कहा आज भाग्य हमारे साथ नहीं है अब यहां रहने से क्या लाभ |  मैं इसलिए जन्मभूमि छोड़कर जा रहा हूं कि कहीं कुछ धन मिल जाए और उससे सेना एकत्र करके चित्तौड़ का उद्धार करने फिर से लौटू | आप लोग तब तक धैर्य बनाकर रखें |  भामाशाह के पीछे उनके बहुत से सेवक घोड़ों पर धन की थैली लादकर ला रहे थे |  भामाशाह ने महाराणा के आगे धन का बडा भारी ढेर लगा दिया और फिर हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से कहा महाराज यह सब धन आपका ही तो है | मैंने और मेरे बाप दादाओं ने चित्तौड़ के राज दरबार की कृपा से उसे इकट्ठा किया है | आप कृपा करके इसे स्वीकार कीजिए और इसे देश का उद्धार कीजिए | महाराणा यह यह सुनकर भावविभोर हो गये |  महाराणा प्रताप ने भामाशाह को हृदय से लगा लिया उनकी आंखों से आंसू की बूंद टपक टपक कर गिरने लगी | वह बोले लोग प्रताप को देश का उद्धार कहते हैं किंतु इस पवित्र भूमि का उद्धार तो तुम्हारे जैसे उदार पुरुषों से होगा |  तुम धन्य हो भामाशाह तुम धन्य हो |  उस धन से महाराणा प्रताप ने सेना इकट्ठी की और मुगल सेना पर आक्रमण किया मुगलों के अधिकार से बहुत सी भूमि महाराणा प्रताप ने जीत ली और उदयपुर में अपनी राजधानी बना ली |  महाराणा प्रताप की वीरता जैसे राजपूतों के इतिहास में विख्यात है वैसे ही भामाशाह का त्याग भी हमारे देश के इतिहास में विख्यात है ऐसे त्यागी पुरुष ही देश का गौरव होते हैं|

वन -वन भटके मान पर, देश -धर्म अभिमान पर | 
राणा वीर प्रताप मिट गए, देखो  अपनी   पर ||